आरण्यक
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आरण्यके वैदिक साहित्यातील एक विभाग आहे. निर्जन अरण्यात निवास करणारे ऋषी -मुनी ब्राह्मण ग्रंथाच्या ज्या भागाचे पठण करीत, त्या भागाला आरण्यके असे म्हणतात. आरण्यके म्हणजे वानप्रस्थाश्रमात अरण्यवासी असताना अध्ययन करण्याचे ग्रंथ होत. आरुणेय उपनिषदात सांगितले आहे की वानप्रस्थात वेदांपैकी आरण्यके व उपनिषदे यांचेच अध्ययन करावे. विद्यार्थ्याना आरण्यकांची संथा देतेवेळी ती गावात न देता अरण्यातच देत असत. सांप्रतही यांचे अध्ययन देवळातच करतात.
स्वरूप
कर्मकांडात रस नसलेल्या वैदिकांचा एक वर्ग यज्ञसंस्थेपासून अलिप्त होऊन अरण्यात राहत असे. त्यांनी अरण्यात राहून यज्ञाच्या मूलभूत स्वरूपाचे चिंतन सुरू केले. केवळ यज्ञाचा नव्हे तर सृष्टीची उत्पत्ती, जीवात्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यू, पुनर्जन्म इत्यादी अनेक विषयांचा त्यांनी तात्त्विक व नैतिक विचार सुरू केला. आरण्यकांचा विषय यज्ञ हा नसून यज्ञाच्या अंतर्गत आध्यात्मिक तथ्यांची मीमांसा हा आहे; यज्ञीय अनुष्ठान हा नसून त्याच्या अंतर्गत दार्शनिक विचार हा आहे. आरण्यकांत यज्ञसंस्थेपैकी महाव्रत, उख्य, पितृमेध इत्यादी विषयांचे विवरण आले आहे. आरण्यकांतील वाक्यरचना सरळ,संक्षिप्त व क्रियाबहुल आहे. आरण्कांचा बाह्य यज्ञापेक्षा मानसिक यज्ञावर जास्त भर आहे. प्राणविद्येचे प्रतिपादन हा आरण्यकांचा एक विशेष विषय आहे. कर्ममार्ग हाच केवळ आत्यंतिक सुखाचा मार्ग नव्हे, त्याला ज्ञानमार्गाची जोड मिळाली पाहिजे, अशी आरण्यककारांची विचारसरणी आहे.[१]
आरण्यकांची संख्या
कधीकाळी एकूण आरण्यके बरीच असावीत. पण त्या आरण्यकांपैकी फक्त ७ आरण्यके उपलब्ध आहेत, ती ही :
ऋग्वेदाची आरण्यके
- ऐतरेय आरण्यक
- कौशीतकी/शांखायन आरण्यक
सामवेदाची आरण्यके
- तलवकार/जैमिनीय आरण्यक
- छांदोग्य आरण्यक
शुक्ल यजुर्वेदाचे आरण्यक
- माध्यंदिन बृहदारण्यक व काण्व बृहदारण्यक
कृष्ण यजुर्वेदाची आरण्यके
- तैत्तिरीय आरण्यक
- मैत्रायणी आरण्यक
अथर्ववेद
एकही आरण्यक उपलब्ध नाही.[२]